मचल के जब भी आँखों से – Machal Ke Jab Bhi Aankhon Se -Bhupinder Singh
मचल के जब भी आँखों से : गाने का संक्षिप्त परिचय
फिल्म “गृह प्रवेश” का गीत “मचल के जब भी आँखों से” 1979 में रिलीज़ हुआ था। इस गाने को आवाज़ दी है भूपेंद्र सिंह ने, संगीतबद्ध किया है कानू रॉय ने और इसके बोल लिखे हैं गुलज़ार ने। यह गीत अपनी मधुरता और शब्दों की गहराई के कारण आज भी लोगों के दिलों में बसा हुआ है।
गीत के संगीतकार: कानू रॉय
कानू रॉय भारतीय सिनेमा के एक बेहद प्रतिष्ठित संगीतकार थे। उन्होंने अपने समय में कई हिट गाने दिए हैं और उनकी धुनें आज भी लोकप्रिय हैं। “मचल के जब भी आँखों से” उनकी संगीत निर्देशन का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
गीत के गीतकार: गुलज़ार
गुलज़ार भारतीय सिनेमा के सबसे सम्मानित और प्रिय गीतकारों में से एक हैं। उनकी लेखनी में एक विशेष प्रकार की गहराई और सादगी होती है, जो सीधे दिल को छू जाती है।
गुलज़ार की लेखनी का जादू
गुलज़ार के शब्दों में एक अनोखा जादू होता है। उनके द्वारा लिखा गया हर गीत एक कहानी कहता है और दिल को छू जाता है। “मचल के जब भी आँखों से” भी इससे अलग नहीं है।
गाने का महत्व और लोकप्रियता
“मचल के जब भी आँखों से” अपने समय का एक हिट गाना था और आज भी इसकी मधुरता और भावनात्मक गहराई के कारण यह लोगों की पसंद बना हुआ है। यह गाना अक्सर रेडियो और टीवी पर सुनाई देता है और इसकी धुन हर किसी के दिल को छू जाती है।
गाने के बोल और उनकी विशेषताएँ
गाने के बोल सरल, लेकिन बेहद प्रभावशाली हैं। गुलज़ार के शब्दों ने गाने को एक विशेष ऊँचाई दी है।
मचल के जब भी आँखों से के शब्दों का विश्लेषण
इस गाने के बोल प्रेम और मधुरता का प्रतीक हैं। शब्दों में छुपी भावना और उनकी प्रस्तुति बेहद शानदार है।
गाने की धुन और संगीत की बारीकियाँ
कानू रॉय ने इस गाने की धुन को इस तरह से तैयार किया है कि वह सुनने वालों को सीधे दिल से जोड़ देती है।
फिल्म में गाने का स्थान
फिल्म “गृह प्रवेश” में इस गाने का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। यह गाना कहानी को आगे बढ़ाने और भावनाओं को व्यक्त करने में सहायक है।
मचल के जब भी आँखों से – Machal Ke Jab Bhi Aankhon Se
- Movie/Album: गृह प्रवेश
- Year : 1979
- Music By: कानू रॉय
- Lyrics By: गुलज़ार
- Performed By: भूपेंद्र सिंह
मचल के जब भी आँखों से – Machal Ke Jab Bhi Aankhon Se Lyrics in Hindi
मचल के जब भी आँखों से
छलक जाते हैं दो आँसू
सुना है आबशारों को
बड़ी तक़लीफ़ होती है
मचल के जब भी आँखों से…
ख़ुदा-रा अब तो बुझ जाने दो
इस जलती हुई लौ को
चराग़ों से मज़ारों को
बड़ी तक़लीफ़ होती है
मचल के जब भी आँखों से…
कहूँ क्या वो बड़ी मासूमियत से
पूछ बैठे हैं
क्या सचमुच दिल के मारों को
बड़ी तक़लीफ़ होती है
मचल के जब भी आँखों से…
तुम्हारा क्या, तुम्हें तो
राह दे देते हैं काँटे भी
मगर हम ख़ाक-सारों को
बड़ी तक़लीफ़ होती है
मचल के जब भी आँखों से…